पत्थरों के टूटने पर क्यों रोते हो-दीपकबापूवाणी-(Pattharon ki tootne par kyon rote ho-DeepakBapuWani)

लोभ लालच के मन में बोते बीज,
देह बना रहे राजरोग की मरीज।
कहें दीपकबापू सोच बना ली राख,
तब चिंता निवारण पर मत खीज।
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सोना चमके पर अनाज नहीं है।
सुर लगे बेसुर क्योंकि साज नहीं है।
कहें दीपकबापू महल तो रौशन
राजा भी दिखे पर राज नहीं है।
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खबर से पहले घटना तय होती,
विज्ञापन से बहस में लय होती।
कहें दीपकबापू फिक्स हर खेल
जज़्बात से सजी हर शय होती।
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पत्थरों के टूटने पर क्यों रोते हो,
 दृष्टिदोष मन में क्यो बोते हो।
कहें दीपकबापू नश्वर संसार में
विध्वंस पर आपा क्यों खोते हो।।
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बेरहमों ने बहुत कमा लिया,
बंदरों के हाथ उस्तरा थमा दिया।
कहें दीपकबापू मत बन हमदर्द
दर्द ने अपना बाजार ज़मा लिया।
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तन मन की हवस एक समान,
लालच के जाल में फंसा हर इंसान।
कहें दीपकबापू धर्म कर्म से जो रहित,
सौदागर देते सस्ते ग्राहक का मान।
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एक दूसरे में लोग ढूंढते कमी।
आपस में नही किसी की जमी।
कहें दीपकबापू दर्द बंटता है तभी
जब कहीं शादी हो या गमी।
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